यूपी में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव के ठीक पहले सूबे की सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में घमासान मच गई है। सैफई राजघराने में उत्तराधिकारी को लेकर समाजवादी परिवार दो खेमे में बंट गया है। सपा के दंगल में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव दंबग की भूमिका में उभरे है। प्रदेश की राजनीति में अहम स्थान रखने वाली समाजवादी पार्टी में एक पीढ़ी का अंत हो गया है।
पिछले दिनों लखनऊ में आयोजित पार्टी अधिवेशन में चार प्रस्तावों सहित पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश को बनाए जाने के बाद समाजवादी पार्टी संस्थापक और राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और उनके भाई शिवपाल सिंह यादव सहित परिवार में खलनायक की भूमिका निभा रहें अमर सिंह का पत्ता साफ हो गया है।
संगठन, सत्ता और सरकार की सारी चाबियां रामगोपाल और अखिलेश के हाथ में चली गईं। यह दंगल भी इसी वजह से हो रहा था। सीएम अखिलेश को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव पास किया गया जिसमें मुलामय सिंह यादव के हाथ से यह कमान छीन ली गई। उन्हें मार्गदर्शक की नई जिम्मेदारी दी गई है। जबकि अमर सिंह एवं चाचा शिवपाल सिंह का भी पत्ता साफ हो गया है।
प्रस्ताव के मुताबिक अब वह पार्टी अध्यक्ष नहीं रहेंगे। सपा में सिर्फ बस सिर्फ अखिलेश की चलेगी। अधिकारों का विकेंद्रीकरण नहीं होगा। टिकट बंटवारे में भी कोई आड़े नहीं आएगा। परिवारवाद की इस जंग में सत्ता के केंद्रीय नियंत्रण के लिए यादव परिवार में जिस तरह की जंग देखने को मिली, वह किसी भी स्थिति में शुभ और दीर्घकालिक नहीं दिखती है।
अखिलेश और रामगोपाल के सामने आई स्थिति से तात्कालिक लाभ हो सकता लेकिन इस बदलाव की उम्र बेहद लंबी नहीं है, क्योंकि पार्टी के अधिकांश विधायकों का समर्थन अभी उन्हीं के पास है और चुनाव परिणाम तक रहेगा। इसकी मुख्य वजह है कि प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव हैं। अभी विधायकों के पास सरकार और सत्ता की ताकत और रुतबा है।
वहीं दूसरी वजह यह है कि पार्टी का कोई भी विधायक यह नहीं चाहता है कि समाजवादी पार्टी इस वक्त पर बिखरे और टूटे। चुनाव के लिहाज से यह खतरनाक होगा। अगर ऐसा हुआ होता तो इसका नुकसान सभी को उठाना पड़ता। पार्टी के लोग ही एक दूसरे के आमने-सामने होते यह स्थिति दोनों के लिए बेहद कठिन होती, जिसका फायदा भाजपा और बसपा उठाती।
फिरहाल पार्टी जिस नए अवतार में उभरी है ऐसे समय में यह चिंता का विषय बना हुआ है। लेकिन चुनाव के बाद आए परिणामों पर पार्टी की स्थिति बदल सकती है। परिणाम अगर खराब रहा तो पार्टी को टूटने से कोई नहीं बचा सकता। उस स्थिति में शिवपाल सिंह यादव एक नए अवतार में दिखेंगे और उनकी पूरी कोशिश होगी की पार्टी की कमान एक बार उनके हाथों में वापास आए। यह स्थिति अभी दिख रही है।
पार्टी के अधिवेशन में वह खुद नहीं गए और मुलायम सिंह को भी नहीं जाने दिए। दूसरी तरफ अधिवेशन को असंवैधानिक बता दिया गया। समाजवादी पार्टी मची इस सियासी सहमात में कभी चाचा तो कभी भतीजा का पलड़ा भारी पड़ा। लेकिन उपसंहार में चाचा बैकफुट पर चले गए उनका राजनीतिक अस्तित्व ही दांव पर लग गया।
सीएम बेटे ने पिता पर खुद उनका ही दांव उन्हीं पर आजमा दिया। यूपी में समाजवादी पार्टी टूट से भले बच गई। लेकिन सत्ता के संघर्ष और घरेलू झगड़े में रिश्ते और संबंध हाशिए पर चले गए। समाजवादी विचारधारा ताश के पत्तों की माफिक बिखर गई। यह उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं है।
प्रदेश के राजनीति के सामने आई स्थिति से लगता है कि देश के राजनीतिक इतिहास की शायद यह सबसे बड़ी त्रासदी है। जहां सत्ता के केंद्रीयकरण पर पूरा परिवार और दल दांव पर लगा था। राजनीतिक पृष्ठभूमि और उत्तराधिकार के इतिहास में बाप का सिंहासन बेटा ही संभालता है, लेकिन यहां सिंहासन और सत्ता को लेकर बाप-बेटे में ही सहमात का खेल दिखा। इस लड़ाई में पिता हार गया, जबकि बेटा जीत गया।
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